राशन की लूट का महा खेल: कोटेदारों की घटतौली, अधिकारीयों की चुप्पी से जनता हो रही परेशान जनता करें क्या

राशन की लूट का महाकाव्य: कोटेदारों की घटतौली, अधिकारीयों की चुप्पी और जनता की बेबसी

घटतौली के खेल में कोटेदारों का खेला: राशन का राग, लूट की धुन

जमुई। जब सरकार व्यवस्था दुरुस्त करने का बीड़ा उठाती है, तो हमारे ‘सिस्टम बाज़’ उसका नया तोड़ खोज लेते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गरीब जनता को उनका हक देने के लिए राशन वितरण में ऑनलाइन प्रणाली लागू की थी, ताकि हर कार्ड धारक को सही मात्रा में राशन मिले। पर कोटेदार बाबूलाल और सागर सिंह पुत्र धीरज सिंह जैसे ‘सियाने’ और ‘जुगाड़ मास्टर’ भला सरकार की नेक कोशिशों को कैसे बर्दाश्त करते?

चुनार के रैपुरिया ग्राम पंचायत की सस्ती गल्ले की दुकानें अब एक ऐसा अखाड़ा बन चुकी हैं, जहां ईमानदारी का गला घोंटा जाता है। यहां घटतौली नहीं, बल्कि ‘घोटाले की कला’ रोज़ाना की कहानी है। ऐसा कहा जाए कि “ऊंट के मुंह में जीरा,” तो गलत नहीं होगा। इन दुकानों पर कार्ड धारकों की लाचारी और नाराजगी को सिर्फ अनसुना नहीं, बल्कि ‘कानून की अंधी गली’ में धकेला जाता है।

जब पत्रकार ने इस ‘राशन रोना’ की तहकीकात की, तो कोटेदार के जवाब ने मामला और गरमा दिया। एक दर्पपूर्ण मुस्कान के साथ, मानो कह रहे हों, “बोलिए और सुनिए कि सिस्टम का मज़ाक कैसे उड़ता है।” जवाब था: “राशन चाहिए तो लीजिए, वरना आगे बढ़िए!” ऐसा बयान देने के पीछे का आत्मविश्वास तभी संभव है जब ‘ऊपर की छतरी’ मजबूत हो। क्षेत्रीय पूर्ति निरीक्षक साहब की जांच तो मानो एक ‘आंख मिचोली’ खेल बन चुकी है, जहां कोई ठोस कार्रवाई के बजाय खानापूर्ति होती है और जनता हाथ मलती रह जाती है।

जब किसी कार्ड धारक ने घटतौली के खिलाफ आवाज़ उठाने की कोशिश की, तो जवाब मिला, “शिकायत करिए, कार्ड निरस्त करवाने का तरीका हम जानते हैं।” यहां सरकार की सख्ती का जवाब तो कोटेदारों ने अपने ‘कानूनी खेल’ से ही दे दिया। सवाल उठता है कि क्या ये कोटेदार ‘मजबूर’ हैं या फिर ‘मदहोश’? असल में, “सांप भी जिंदा, लाठी भी सलामत” वाली कहावत को यह मामला बखूबी चरितार्थ करता है।

रही बात क्षेत्रीय पूर्ति विभाग के ‘ठेकेदारों’ की, तो उनकी मूक सहमति मानो इस ‘राशन ड्रामे’ की रीढ़ बन चुकी है। “आंखों पर पट्टी, और कानों पर हाथ”—इनकी जांच का यही हाल है। यहां जनता पूछ रही है: क्या यह ऑनलाइन प्रणाली वाकई जनता की भलाई के लिए थी, या फिर यह ‘ऊपर वालों’ के लिए नीचे वालों को खुश करने का एक नया तरीका?

अंतिम सवाल: कब तक चलेगा यह ‘घटतौली का राज’? क्या सरकार की ईमानदार कोशिशें इन चतुर बाज़ों की होशियारी पर भारी पड़ेंगी, या फिर ‘ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज बढ़ता गया’? राशनकार्ड धारक आज आसमान की ओर देख रहे हैं, इंतजार में कि कब न्याय की बिजली इन कोटेदारों की ‘सुरक्षा छतरी’ पर गिरेगी।

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